0 Bookmarks 84 Reads0 Likes
ख़ाक मैं ने जो उड़ाई थी बयाबानों में
रस्म अभी तक वो चली आती है दीवानों में
वहशियों को ये सबक़ देती हुई आई बहार
तार बाक़ी न रहे कोई गरेबानों में
जिस को हसरत हो मिरे दिल से निकल जाने की
ऐसा अरमाँ न हो शामिल मिरे अरमानों में
मुझ से कहती है मिरी रूह निकल कर शब-ए-ग़म
देख मैं हूँ तिरे निकले हुए अरमानों में
वही अज़़कार-ए-हवादिस वही ग़म के क़िस्से
'अब्र' क्या इस के सिवा है तिरे अफ़्सानों में
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments