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ख़ाक मैं ने जो उड़ाई थी बयाबानों में
रस्म अभी तक वो चली आती है दीवानों में
वहशियों को ये सबक़ देती हुई आई बहार
तार बाक़ी न रहे कोई गरेबानों में
जिस को हसरत हो मिरे दिल से निकल जाने की
ऐसा अरमाँ न हो शामिल मिरे अरमानों में
मुझ से कहती है मिरी रूह निकल कर शब-ए-ग़म
देख मैं हूँ तिरे निकले हुए अरमानों में
वही अज़़कार-ए-हवादिस वही ग़म के क़िस्से
'अब्र' क्या इस के सिवा है तिरे अफ़्सानों में
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