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सौ-सौ प्रतीक्षित पल गए
सारे भरोसे छल गए
किरणें हमारे गाँव में
ख़ुशियाँ नहीं लाईं ।
महका नहीं मुरझा हृदय
चहकी नहीं कुछ ताज़गी
मानी नहीं, मानी नहीं
पतझर की नाराज़गी
मरते रहे, खपते रहे
प्रतिकूल धारों में बहे
लेकिन सफलता दो घड़ी
मिलने नहीं आई ।
अपना समय भी ख़ूब है
भोला सृजन जाए कहाँ
छल-छद्म तो स्वाधीन है
ईमान पर पहरा यहाँ
औ’ इस कदर गतिरोध पर
जग वृद्ध के गतिरोध पर
नाराज़ बिल्कुल भी नहीं
नादान तरुणाई ।
पर ख़ुदकुशी होगी नहीं
छाई रहे कितनी ग़मी
हर एक दुख के बाद भी
जीवित रहेगा आदमी
हर लड़खड़ाते गान को
गिरते हुए ईमान को
अक्षर किसी दिन थाम लेंगे
प्रेम के ढाई ।
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