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हम रबर के खिलौने
बिकते हैं सुबहो-शाम,
लिख गई अपनी क़िस्मत
शाहज़ादों के नाम।

कुछ नहीं पास अपने,
है नहीं कोई घर।
रहते ‘शोकेस’ में हम,
या तो फ़ुटपाथ पर।

होने का नाम-भर है
मिटना है अपना काम।

छपते हम पोस्टरों में,
बनते हैं हम ख़बर।
बन दरी या ग़लीचे,
बिछते हैं फ़र्श पर।

कुर्सियों से दबी ही
उम्र होती तमाम।

दूर तक चलने वाला
है नहीं कोई साथ।
ताश के हम हैं पत्ते
घूमते हाथों-हाथ।

हम तो हैं इक्के-दुक्के
साहब-बीवी-ग़ुलाम।

रेल के हम हैं डब्बे
खींचता कोई और।
छोड़कर ये पटरियाँ
है कहाँ हमको ठौर।

बंद सब रास्ते हैं
सारे चक्के हैं जाम।

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