जीवनवृक्ष's image

अच्छा हो कि सहसा समाप्त हो जाए मेरा संसार
झर जाएँ सारे के सारे सूखे पत्ते एक साथ

मैं रह लूँगा अकेला ही मसान में स्थाणु की तरह
नंगी सूखी टहनियों के साथ मनोरथों की भस्म लगाए

क्या हुआ जो नहीं आती है मदविह्वल रमणी
मदिरा के कुल्लों से मुझे सींचने के लिए
क्या हुआ जो रुनझुन करती नूपुरमंडित चरणों से
सुकुमार प्रहार नहीं करती बाला कोई मेरी जड़ों पर
उससे मेरा कुछ घटने वाला नहीं हैं
मैं कोयले की तरह काला
अपरिभाष्य सारे संकल्पों को भीतर समेटे
कपाली की तरह रह लूँगा यहाँ
मैं नहीं चाहता धीरे-धीरे मरना
मैं नहीं चाहता पत्तों और फलों की एक-एक करके गिरना
अच्छा हो कि पास के मसान में धधकती चिता की लपटें
निगल लें मुझे भी
और मैं राख बन कर यहीं बिखरूँ

अथवा मरूँगा नहीं मैं
मेरी जड़ें अभी बहुत गहरी हैं गड़ी
धरती के भीतर जहाँ पानी है
मैं फिर खींच लूँगा रस
फिर रच लूँगा नए पत्ते
फिर लहका दूँगा देह पर फूल
नीलम की आभाएँ फिर रच लूँगा मैं

किसी अपने को फूँक कर
लौटते हुए लोग
क्षण भर मेरी छाया में बैठेंगे
फिर देखेंगे मुझे
बहुत हसरत के साथ।

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts