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इशरत-ए-हाल में अंदेशा-ए-फ़र्दा करना
मेरे मशरब में नहीं ये ग़म-ए-बेजा करना
फ़िक्र-ए-अंजाम नहीं फ़र्ज़ किसी मय-कश पर
हाँ मगर बादा-ए-आग़ाज़ की पर्वा करना
महव-ए-नज़्ज़ारा ज़माना है मगर हासिल-ए-दीद
ऐसा आसाँ नहीं दुनिया का नज़ारा करना
हासिल-ए-ज़ीस्त है क्या मय-कदा-ए-हस्ती में
तल्ख़ी-ए-बादा-ए-उम्मीद गवारा करना
देख ऐ बे-ख़ुदी-ए-शौक़-ए-परस्तिश होशियार
हुस्न-ए-ख़ुद्दार को महफ़िल में न रुस्वा करना
लाख मायूब न हो फिर भी नहीं मुस्तहसन
हज़रत-ए-दोस्त में इज़्हार-ए-तमन्ना करना
सौ तरीक़े हैं परस्तिश के अगर ज़ौक़ हो कुछ
क्या बड़ी बात है कोई उसे सज्दा करना
तर्क-ए-मय कुफ़्र है ऐ 'राज़' मिरे मशरब में
ऐन ईमाँ है सर-ए-साग़र-ओ-मीना करना
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