
भारत के इतिहास में सोलह मई दो हजार चउदह
एक ऐसा दिन बनकर आया जिसे देखने के लिए
भारत का इतिहास अब तक तरसता रहा
सुबह मात्र दो घण्टे के भीतर अचानक
भरभराकर ढह गईं जाति और धर्म की दीवारें,
देखते-देखते भारत के भीतर वर्ग और वर्ण से
बाहर निकलकर खडे़ हो गए लोग
देखते ही देखते हिन्दू और मुसलमान
एक थाली में खाने लगे खीर और खिचड़ा
बैठकर आपस में सुलझाने लगे अपने विवाद
उनके बीच के सारे भय मिट गए और
मन्दिर-मस्ज़िद से सटीं दीवारों को
उन्होंने हक़ीक़त मान लिया और यहाँ तक
कहने लगे वे कि अब धर्म से ऊपर हैं
और अब हमे धर्म से कुछ लेना-देना नहीं हैं
न हम हिन्दू हैं और न मुसलमान
हम तो बस मनुष्य हैं, बस मनुष्य
स्वर्णों के मोहल्लों से दलितों दूल्हों का
न निकल पाना पल में विस्मृत हो गया
देखते-देखते स्वर्ण के घर से उठकर
दलित के घर जाने लगी डोली
रोटी-बेटी के रिश्ते बन गए दोनों में
एक खाट पर बैठकर पीते हुए लस्सी
दोनोें एक साथ बोले जात-पात
छुआ-छूत क्या होती है जनाब
हम अब इस घृणा से ऊपर उठ गए हैं
हमने इस सबसे ऊपर उठकर
खुद को व्यक्त किया है, हम अबसे
बस भारतीय हैं और हमारी कोई जात नहीं
भारत के इतिहास में सोलह मई दो हजार चउदह
जिसमें रात को दिन होने में नहीं लगा समय
यानि नायक का वह करिश्मा जिसे
कोई नहीं दिखा सका आज तक
कि यह इतने आश्चर्य की तरह दिखा
कि वक्त भी दाँतो तले उँगली दबा बैठा ।
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