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आलम-ए-आब-

Muhammad IqbalMuhammad Iqbal
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आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं

वो जो नज़र से है निहाँ उस का जहाँ है तू कि मैं

वो शब-ए-दर्द-ओ-सोज़-ओ-ग़म कहते हैं ज़िंदगी जिसे

उस की सहर है तू कि मैं उस की अज़ाँ है तू कि मैं

किस की नुमूद के लिए शाम ओ सहर हैं गर्म-ए-सैर

शाना-ए-रोज़गार पर बार-ए-गिराँ है तू कि मैं

तू कफ़-ए-ख़ाक ओ बे-बसर मैं कफ़-ए-ख़ाक ओ ख़ुद-निगर

किश्त-ए-वजूद के लिए आब-ए-रवाँ है तू कि मैं

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