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ऐ कि तेरा मुर्ग़-ए-जाँ

Muhammad IqbalMuhammad Iqbal
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ऐ कि तेरा मुर्ग़-ए-जाँ तार-ए-नफ़स में है असीर

ऐ कि तेरी रूह का ताइर क़फ़स में है असीर

इस चमन के नग़्मा-पैराओं की आज़ादी तो देख

शहर जो उजड़ा हुआ था उस की आबादी तो देख

फ़िक्र रहती थी मुझे जिस की वो महफ़िल है यही

सब्र-ओ-इस्तिक़्लाल की खेती का हासिल है यही

संग-ए-तुर्बत है मिरा गिरवीदा-ए-तक़रीर देख

चश्म-ए-बातिन से ज़रा इस लौह की तहरीर देख

मुद्दआ तेरा अगर दुनिया में है ता'लीम-ए-दीं

तर्क-ए-दुनिया क़ौम को अपनी न सिखलाना कहीं

वा न करना फ़िर्क़ा-बंदी के लिए अपनी ज़बाँ

छुप के है बैठा हुआ हंगामा-ए-मशहर यहाँ

वस्ल के अस्बाब पैदा हों तिरी तहरीर से

देख कोई दिल न दुख जाए तिरी तक़रीर से

महफ़िल-ए-नौ में पुरानी दास्तानों को न छेड़

रंग पर जो अब न आएँ उन फ़सानों को न छेड़

तू अगर कोई मुदब्बिर है तो सुन मेरी सदा

है दिलेरी दस्त-ए-अर्बाब-ए-सियासत का असा

अर्ज़-ए-मतलब से झिजक जाना नहीं ज़ेबा तुझे

नेक है निय्यत अगर तेरी तो क्या पर्वा तुझे

बंदा-ए-मोमिन का दिल बीम-ओ-रिया से पाक है

क़ुव्वत-ए-फ़रमाँ-रवा के सामने बेबाक है

हो अगर हाथों में तेरे ख़ामा-ए-मोजिज़ रक़म

शीशा-ए-दिल हो अगर तेरा मिसाल-ए-जाम-ए-जम

पाक रख अपनी ज़बाँ तिल्मीज़-ए-रहमानी है तू

हो न जाए देखना तेरी सदा बे-आबरू

सोने वालों को जगा दे शे'र के ए'जाज़ से

ख़िरमन-ए-बातिल जला दे शो'ला-ए-आवाज़ से

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