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जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर

Muhammad Ibrahim ZauqMuhammad Ibrahim Zauq
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जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर

क्या ही पछताता था मैं क़ातिल का दामाँ छोड़ कर

मैं वो मजनूँ हूँ जो निकलूँ कुंज-ए-ज़िंदाँ छोड़ कर

सेब-ए-जन्नत तक न खाऊँ संग-ए-तिफ़्लाँ छोड़ कर

पीवे मेरा ही लहू मानी जो लब उस शोख़ के

खींचे तो शंगर्फ़ से ख़ून-ए-शहीदाँ छोड़ कर

मैं हूँ वो गुमनाम जब दफ़्तर में नाम आया मिरा

रह गया बस मुंशी-ए-क़ुदरत जगह वाँ छोड़ कर

साया-ए-सर्व-ए-चमन तुझ बिन डराता है मुझे

साँप सा पानी में ऐ सर्व-ख़िरामाँ छोड़ कर

हो गया तिफ़्ली ही से दिल में तराज़ू तीर-ए-इश्क़

भागे हैं मकतब से हम औराक़-ए-मीज़ाँ छोड़ कर

अहल-ए-जौहर को वतन में रहने देता गर फ़लक

लाल क्यूँ इस रंग से आता बदख़्शाँ छोड़ कर

शौक़ है उस को भी तर्ज़-ए-नाला-ए-उश्शाक़ से

दम-ब-दम छेड़े है मुँह से दूद-ए-क़ुल्याँ छोड़ कर

दिल तो लगते ही लगे गा हूरयान-ए-अदन से

बाग़-ए-हस्ती से चला हूँ हाए परियाँ छोड़ कर

घर से भी वाक़िफ़ नहीं उस के कि जिस के वास्ते

बैठे हैं घर-बार हम सब ख़ाना-वीराँ छोड़ कर

वस्ल में गर होवे मुझ को रूयत-ए-माह-ए-रजब

रू-ए-जानाँ ही को देखूँ मैं तो क़ुरआँ छोड़ कर

इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न

कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

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