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इस वुसअत-ए-कलाम से जी तंग आ गया

Momin Khan MominMomin Khan Momin
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इस वुसअत-ए-कलाम से जी तंग आ गया

नासेह तू मेरी जान न ले दिल गया गया

ज़िद से वो फिर रक़ीब के घर में चला गया

ऐ रश्क मेरी जान गई तेरा क्या गया

ये ज़ोफ़ है तो दम से भी कब तक चला गया

ख़ुद-रफ़्तगी के सदमे से मुझ को ग़श आ गया

क्या पूछता है तल्ख़ी-ए-उल्फ़त में पंद को

ऐसी तो लज़्ज़तें हैं कि तू जान खा गया

कुछ आँख बंद होते ही आँखें सी खुल गईं

जी इक बला-ए-जान था अच्छा हुआ गया

आँखें जो ढूँडती थीं निगह-हा-ए-इल्तिफ़ात

गुम होना दिल का वो मिरी नज़रों से पा गया

बू-ए-समन से शाद थे अग़्यार-ए-बे-तमीज़

उस गुल को ए'तिबार-ए-नसीम-ओ-सबा गया

आह-ए-सहर हमारी फ़लक से फिरी न हो

कैसी हवा चली ये कि जी सनसना गया

आती नहीं बला-ए-शब-ए-ग़म निगाह में

किस मेहर-वश का जल्वा नज़र में समा गया

ऐ जज़्ब-ए-दिल न थम कि न ठहरा वो शोला-रू

आया तो गर्म गर्म व-लेकिन जला गया

मुझ ख़ानुमाँ-ख़राब का लिक्खा कि जान कर

वो नामा ग़ैर का मिरे घर में गिरा गया

मेहंदी मलेगा पाँव से दुश्मन तो आन कर

क्यूँ मेरे तफ़्ता सीने को ठोकर लगा गया

बोसा सनम की आँख का लेते ही जान दी

'मोमिन' को याद क्या हज्रुल-अस्वद आ गया

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