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जन्नत ख़ाक पे जिस रात उतर आई थी
बदलियाँ रहमते यज़दा की जहाँ छाई थी ।
इशरत-ओ-ऐश की जिस जा के फ़रादानी थी
जिस जगह जल्वा फिगन रूहे जहाँबानी थी ।
हाँ, वहीं मेरे दिले ज़ार ने ये भी देखा
हाँ, मेरी चश्मे गुनहगार ने ये भी देखा
ख़ूने दहकाँ में इमारत के सफीने थे रवाँ ।
हर तरफ़ अहल की जलती हुई मइयत का धुआँ ।
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