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मेरे मन की गहन गुहा में एक असुर रहता है
निशिचारी परियों के शव को हृदय लगाये
मन को मारे शीश झुकाये दिन में बैठा रहता
प्रतिसंध्या को पा प्रदोष बल अट्टहास करता है।
मेरे मन के अतल नीड़ में नील बिहंग बसेरा
निशि की माया विहग-नीड़ को स्वर्णपुरी में बदले
जहाँ असुर के नजरबाग में झरे रात शेफाली
नभ में बिचरे पंख पसारे पाकर पुनः सबेरा।
मेरे मन के गुहागर्भ में एक पुरुष अविनाशी
गुडाकेश निष्कंप शिखा सा अहरह जलता
दिवस-रात की मेरी परिक्रमा का यह साक्षी है
मधुमाधव का रस आखेटक काष्ठ मौन सन्यासी।
असुर, विहग, सन्यासी तीनों सुहद-सखा विश्वासी,
मन की मर्मकथा के ये तीनों हैं परिभाषी।
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