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अब की होली में रहा बे-कार रंग

IMAM BAKHSH NASIKHIMAM BAKHSH NASIKH
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अब की होली में रहा बे-कार रंग

और ही लाया फ़िराक़-ए-यार रंग

सुरख़-रू कर दे शराब आई बहार

है ख़िज़ाँ से ज़र्द ऐ ख़ुम्मार रंग

होंट ऊदे सब्ज़ ख़त आँखें सियाह

चेहरे का सुर्ख़-ओ-सफ़ेद ऐ यार रंग

हम को सारे गुलशन-ए-आफ़ाक़ में

बस पसंद आए यही दो-चार रंग

ग़ैर से खेली है होली यार ने

डाले मुझ पर दीदा-ए-ख़ूँ-बार रंग

किस की होली जश्न-ए-नौ-रोज़ी है आज

सुर्ख़ मय से साक़िया दस्तार रंग

हिज्र-ए-जानाँ में ठहरता ही नहीं

क्या ही मेरे मुँह से है बेज़ार रंग

क्या है गिरगिट आसमाँ के सामने

बदले इक इक दम में सौ सौ बार रंग

आती है ओ क़ैस लैला दश्त में

ख़ून-ए-पा से जिल्द अब पुर-ख़ार रंग

धूप है पर मेरे रोज़-ए-हिज्र का

है ब-रंग-ए-साया-ए-दीवार रंग

हो गया क्यूँ ज़र्द 'नासिख़' क्या कहूँ

है ज़माने का अजब ऐ यार रंग

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