सुप्त सिंह के मस्तक पर चूहे ने चरण चढ़ाया है
आज हिमालय के देवालय में श्रृगाल घुस आया है
रवि के ज्योतिर्मय आनन पर पड़ी राहु की छाया है
चली सत्य से लोहा लेने छल प्रवंचना माया है
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यह धरती है राम-कृष्ण की, भीमार्जुन-से वीरों की
अब भी छाई स्वर्गलोक तक चर्चा जिनके तीरों की
तिब्बत का न पठार, चाँग की फौज न यह शहतीरों की
अरे, हटा ले पाँव, भूमि यह हिमगिरि के प्राचीरों की
यह परिवेश समुद्रगुप्त का, यह शकारि का साका है
राणा का चित्तौड़ लड़ाका, गढ़ यह वीर शिवा का है
गुरु गोविन्द सिंह का प्यारा, यह रण-मंदिर बाँका है
यह सुभाष की स्वर्ण-कीर्ति, गांधी की विजय-पताका है
शांत-सहिष्णु देश यह जितना, उतना उग्र, प्रबल भी है
हिमगिरि में शीतलता जितनी उतना तरल अनल भी है
तू समुद्र तो हम अगस्त्य, शिव हम तू अगर गरल भी है
ब्रह्मपुत्र का जल यह तेरी जनसंख्या का हल भी है
सिंहों की यह माँद कि जिसमें घुस आये मृगछौने हैं
आज चाँद को छूने आये बांह उठाये बौने हैं
हिम की चट्टानों के नीचे, आ जा बिछे बिछौने हैं
हमने बचपन से चीनी के देखे बहुत खिलौने हैं
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