0 Bookmarks 95 Reads0 Likes
एकलव्य से संवाद-4
हाँ, एकलव्य !
ऐसा ही हुनर था ।
ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद
दो अँगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फँसाकर ।
एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूँ तुम्हारा कुर्सीनामा[1]
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गाँव की पत्थल गड़ी[2] पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुँच जाता हूँ ।
लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।
मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाज़ी में
भाई और पिता की तीरंदाज़ी में
अपनी माँ और बहनों की तीरंदाज़ी में
हाँ एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
वहाँ से आगे
जहाँ महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments