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किए-अनकिए सारे अपराधों की लय पर
झन-झन-झन
बजाते हुए अपनी ज़ँजीरें
गाते हैं खुसरो
रात के चौथे पहर
जब ओस झड़ती है
आसमान की आँखों से
और कटहली चम्पा
कसमसाकर फूल जाती है
भींगती मसों में सुबह की ।
अपनी ही गन्ध से मताकर
फूल-सा चटक जाने का
सिलसिला
एक सूफ़ी सिलसिला है,
किबला,
एक जेल है ये ख़ुदी,
ख़ुद से निकल जाना बाहर,
और देखना पीछे मुड़कर
एक सूफ़ी सिलसिला है यही !
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