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क़िताबों में कहीं न था की कैसे इश्क़ हो,
दिसम्बर का महीना था तो कैसे इश्क़ हो?,
हम उनसे भी निभाएंगे जो क़ाबिल है नहीं इसके,
सभी को हम सिखाएंगे की कैसे इश्क़ हो,
ज़रूरी ये नहीं की याद आयें हम ज़माने को,
मगर इतना तो कर जाएं की खुल के इश्क़ हो,
डरा सहमा स जो छुपकर के कहीं बैठ जाता हूँ,
निकल कर के बाहर आऊँ और कहदू "इश्क़ हो",
ये भी एक इंकलाब की तरह फ़ैले फ़िज़ाओं में,
हर एक इंसान चिल्लाए इश्क़ हो! इश्क़ हो!
~शिवम
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