इमारत's image
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एक अधूरा छूटा हुआ खत,

पढ़ने बाद उसे लुप्त हुए सभी मत,

और वो टूटी बिखरी इमारत,

जहां होती थी बेइंतिहां इबादत,

गुज़री कई रातें उस इमारत की छत,

ताज़ा वो यादें जैसे साथ लगी हुई कोई लत,

चिंतन करने पर खुलती फिर कोई नई परत!

गुंजाइश बरक़रार ताकि हो रिश्तों की मरम्मत!

आखिर वो सपने ज़िंदा जो थे साथ पले!

कई दफा गर्मजोशी से मिले हम गले!

पहल करने से ही तो चुप्पी की गांठ खुले!

एक दिन मुलाकात के वास्ते यूंही मिले?

थोड़ा ठहर रास्ते चाहे अपने-अपने चले!

ऐसे ही एक सुनहरा सा दिन तो साथ ढ़ले!

कभी ना ढ़हते विश्वास की बुनियाद पर बने किल

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