
शुष्क शीत में मखमल सा एहसास,
अपनापन तुम्हारा बहुत अनोखा एवं खास,
उमंग लिए मंदिर में होते जैसे जब कीर्तन,
सूनी नगरी में सॅवेरे गूंजती जैसे जब अज़ान!
सुकून की चेष्ठा करता हर कोई सरेआम,
फिर मेरे लफ्ज़ों पर क्रोधित ना हो आवाम।
तुम्हें भला क्यूं सिमेट दिया जाए इतिहास के पन्नों से?
तुम वो नहीं जो बंट जाओ मज़हबी इरादों से!
तुमने कुंठा को नहीं करने दिया इंसानियत में फरेब़,
प्रेम को लुटाकर मिटाया स्वच्छंद होकर सारा ऐब,
जग को बतलाने हेतु ना गढ़ों फिर तुम कोई व्यथा!
चित्रित होने दो हौले से अपनी असल अलग-सी कथा,
हर त्यौहार को तुम मनाते पूरे उल्लास के संग,
तुमसे मिलते लगता मुक्त हो गई छोड़ मैं सारी जंग!
बतलाओं कैसे तुम अपनाते हो सब बिना किसी बैर?
रूह कायल हैं तुम्हारी सादगी को देखकर खैर!
अपने चयन से पहन लो चाहे कोई भी पोशाक,
बेहिसाब सौंदर्य झलकता क्योंकि हो तुम बेबाक,
प्रेम को अगर बतलाना हुआ अपना रुतबा,
या खामोशी को देनी हुई खुदको कोई जुबां,
तो ज़िक्र में उसके मिल जाएगा तुम्हारा सारांश,
बूझने दो लोगों को वो सच जो परख नहीं सके वो अधिकांश।
- यति
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