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हर गली नुक्कड़ चौराहे पे
ये अब आम है
जिधर भी देखता हूँ मैं हर ओर
क़त्ल-ए-आम है।
कहीं सुबह है सहमी सी कही
डरी सी शाम है
इंसानियत को देते ये लोग न जाने
कौन सा पैगाम हैं।
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हर गली नुक्कड़ चौराहे पे
ये अब आम है
जिधर भी देखता हूँ मैं हर ओर
क़त्ल-ए-आम है।
कहीं सुबह है सहमी सी कही
डरी सी शाम है
इंसानियत को देते ये लोग न जाने
कौन सा पैगाम हैं।
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