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सभाएं आयोजित हुईं हैं लोगों का भीड़ उमड़ी हैं ज्वारभाटा की तरह, मैं भी खड़ा हूं इसी भीड़ में और तालियां बजाने की तैयारियां कर रहा हूं! जैसे सब बजा रहे हैं, ठीक वैसे ही! लेकिन इसी में एक आदमी खड़ा हैं, और संघर्ष कर रहा हैं, एक अशहाय नाविक की तरह! उसका संघर्ष पेट भरने का संघर्ष है , अपना, अपने बच्चों का, और पूरे परिवार का... एक मजदूर अच्छा पिता नहीं बन पाया पूरे जीवन भर, क्योंकि उसके बच्चों को लगता है पापा हमारे लिए कुछ नहीं किए... एक मज़दूर कभी अच्छा पति भी नहीं बन पाया क्योंकि उसकी पत्नी को लगता हैं इन्होंने हमारे श्रृंगार की कोई चीज नहीं दिलाई! इस तरह एक मज़दूर पूरे जीवन भर खेतों में, फैक्ट्रियों, तपते भट्ठों में अपना पूरा जीवन झोंक दिया... मरते समय तक कुछ नही बन पाया! सभाएं आगे भी आयोजित होती रहेंगी, तालियां ठीक ऐसे ही बजेंगी ... लेकिन मज़दूर तो हमेशा मजदूर रहा है , उसकी पत्नी के पास श्रृंगार की कोई चीज नहीं क्योंकि उनका संघर्ष जीवित रहने का संघर्ष है। विकास गोंड (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
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