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पुनः शकुनि की कपट-चाल से, एक युधिष्ठिर छला गया है ।
घर-घर वही हस्तिनापुर सी, कुटिल विसातें बिछी हुई हैं ।
चौसर-चौसर छल-छद्मों से, ग्रसित गोटियाँ सजी हुई हैं ।
दरबारी हैं विवश सभा में, कौन धर्म का पाँसा फेंके
कौन न्याय अन्याय बताये, सबकी आँखें झुकी हुई हैं ।
लगता है चेहरों पर इनके, रंग स्वार्थ का मला गया है।
जो रहस्य द्वापर में थे वे कलयुग में अति गूढ़ हुए हैं ।
जाने क्या है पाण्डु पुत्र सब, यों कर्तव्यविमूढ़ हुए हैं ।
समझ रहा है
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