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नापाक कह देते हो मूझे जब हर माह
तुलसी के सम मैं तब पवित्र हूं ,
जीवन निर्माण की दस्तक दे जाती हूं रक्त से,
उन पांच दिनों में,मैं सबसे विचित्र हूं।
अछुत बनी रह जाती हूं जब तुम्हारे लिए,
खुद की वजूद को मैं तब स्पर्श करती हूं,
कुच्छित! मान लिया जाता है जब मूझें,
जीवन की सर्वश्रेष्ठ श्रृंगार,मैं तब लिए फिरती हूं।
अवलापन का प्रतीक मान लिया है जिसे तुमने,
उसकी ताकत का मैं,एक बेहतरीन व्याख्या हूं,
सती,कामेश्वरी या यौनी मुद्रा धारिनी कह लो मुझे,
आखिर,"मैं ही तो कामाख्या हूं!"
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