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वो पल कितना खुबसूरत हुआ करता था,
जब तुम मेरे फोन में मैसेज बनकर धड़का करते थे ।
उसी धड़कन को सुनकर मेरा दिल भी धड़का करता था,
तुम्हारे मैसेज का बेसब्री से इंतजार हुआ करता था ।
जब तुमसे मैसेज में बातें होती थी, यकीन मानो मेरा हृदय, मेरे हाथों में उतर आया करता था,
उन धड़कते हाथों से ही मैं तुम्हें मैसेज किया करता था ।
जब जब तुमसे बातें होती थी, ये तब तब ही धड़का करता था ।
तुम्हारी हर डीपी को मैं अपने शब्दों से बयां करने की कोशिश करता था,
वो तुम्हीं थे जिसने मुझे लिखने की प्रेरणा दी थी,
वो तुम्हीं थे जिसके लिए मैं लिखा करता था ।
वो तुम्हीं थे जो मेरे हर शब्द में हुआ करते थे,
वो तुम्हीं थे जिसके लिए मेरे हर शब्द हुआ करते थे ।
जब कभी मैं सोचता तो तुम्हारा चेहरा सामने आ जाता था,
जब कभी मैं लिखता तो शब्दों में सिर्फ़ तुम्हारा पहरा नज़र आता था ।
हालात कुछ ऐसे थे आंखे बंद करूं तो सामने तुम ही नज़र आते थे,
जब खोलता मैं आंखे तो तुम आसपास महसूस होते थे ।
बस हम इन्हीं बैचेनियों मैं रह गए,
और पता नहीं तुम कब आकर चले गए ।
दोष तुम्हारा नहीं सारा का सारा मेरा था,
मैं ही अपनी हैसियत से ज्यादा सोचने लगा था ।
तुम्हारे लिए ये सब आम बात हुआ करती थी,
मेरे लिए आम से कई ज्यादा खास हुआ करती थी ।
तुम्हारा होना दूर ही सही पर इस दिल को सुकूं मिलता था,
तुम्हारे सिर्फ होने से ही ये दिल खिला करता था ।
तुम पहली झलक में ही इन आंखों में बस गए थे,
आंखों में बसते बसते दिल में उतर गए थे ।
पता नहीं आंखों से धीरे धीरे सरकते हुए, तुम कब दिल तक पहुंच गए,
पता नहीं धीरे धीरे तुम कब इस दिल की धड़कन बन गए ।
ये दिल तुम्हारे इशारे पर ही धड़कने लगा था,
जब तुम कुछ कहते सिर्फ तब ही ये धड़कने लगता था ।
खैर छोड़ों मैं भी क्या सोचने और लिखने लग गया,
जो अपना था ही नहीं वो तो कब का चला गया ।।
: तुषार "बिहारी"
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