
उलझी सड़क, सुलझी मंज़िल
मैंने अपने घर में औरत ज़्यादा देखी हैं
और उनकी इज़्ज़त कम।
औरत के लिए, दूसरों के किए
फैसले ज़्यादा सुने हैं
और उन फैसलों में
औरत की शिरकत कम।
एक बार मेरी मां ने गलती से
अपने ऊपर गरम चाय का कप गिरा लिया था,
उनके उलटे पैर का लगभग सारा हिस्सा
काफ़ी जल गया था।
तब मेरी मां का हाल पूछने वाले
या ठंड़ी बर्फ फ्रिज से निकाल कर
देने वाले मैंने घर में कम देखे।
मां के हिस्से अक्सर मैंने
घर वालों के दिए ग़म देखे।
किसी भी जगह जब कोई फेस्ट होता है
ये मुझे पहले से पता होता है
कि मैं वहां नहीं जा पाऊंगी।
मुझे और घर वालों को
देर से लौट आने का,
रात का खौफ होता होगा।
इस बात की फिक्र करते-करते मैं भूल जाती हूं
कि मेरा भी तो कोई शौक होता होगा।
औरत खुदा की चलाई हुई वो मर्ज़ी है
जिसे तोड़ कर कोई ज़्यादा देर खुश नहीं रह सकेगा।
औरत खुदा के आंसुओं से लिखी
वो किताब है जिसके खुलते ही
सभी के इल्म फीके पड़ जाते हैं।
औरत खुदा की बनाई हुई वो उलझी सड़क है
जो कई सुलझी मंज़िलें अपने नाम कर के बैठी है।
सब सोचते हैं औरत किसी के करम की भूखी है
मगर वो औरत है,
वो पहले ही अपने काम कर के बैठी है।
-तुलसी
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