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दुनियां में कभी खुद को अकेले न समझना।
नीचे जमीन, सर पे आसमान बहुत है।।
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जलने का, जलाने का चलन बहुत हो चुका।
हंसने का, हंसाने का भी, सामान बहुत है।।
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कैसे मैं हाथ छोड़ दूं , तकलीफ-ए-वक्त में।
उस शख्स का मुझ पर भी तो एहसान बहुत है।।
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आता नहीं है कोई कहीं अपना सा नजर।
कहने को तो, इस दुनियां में इन्सान बहुत है।।
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चेहरे दिखाई दे रहे सब आज अजनबी।
वैसे तो यहां अपनी भी, पहचान बहुत है।।
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बाहर से खुश दिखाई देना सिर्फ छलावा।
अन्दर से तो हर शख्स परेशान बहुत है।।
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लकड़ी के चौखटे की इस तस्वीर की तरह।
अपनो में अपनी आन,बान,शान बहुत है।।
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सुर ताल में, नगमों के मेरे जान हो न हो।
नगमों के हर इक लफ्ज में पर जान बहुत है।।
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