
Share0 Bookmarks 42 Reads0 Likes
मैं भयभीत, अबोध, अज्ञानी
अनभिज्ञ निज संसार से
हर बार ही घायल हुआ
हर वक्त के प्रहार से
और लिप्तता इतनी सघन
है विषयों के विस्तार से
एकरूप जैसे हुआ कोई
जगत के निस्सार से
आकर दूर कोसों बसा
निज अंतस् की पुकार से
और पोषित हो रहा
विषरूपी विषय आहार से
पर तुम!
तुम क्यों बेचैन हो?
तुम तो देती चैन हो
तुम तो पाप हारिणी
तुम तो मुक्ति वाहिनी
भवसागर पार तारिणी
तुम क्यों बेचैन हो?
सदियों से तुम्हारी जल धार
बह रही है लगातार
जो करती आई है उद्धार
अगणित जन का बार-बार
तुम्हारी जलधार में इतनी गति किसके लिए है?
ये व्याकुलता मिलन की किसके प्रति है?
किस प्रियतम की विरह वेदना
सहती तुम दिन रैन हो?
और जिसके लिए आज तुम
खोती अपना चैन हो?
<
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments