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बनावटी मुखोटो से भरे उन अनकहे और अनसुने रास्ते पर चलते लोग,
नाजने क्या तलाशते
न खुशी की खुशी न गम का गम नजाने कहा चलने लगते,
वो राजीव चौक की मेट्रो के एक कोने से उन भागते हुए लोगो को टकटकी लगाए देखना और उनकी जिंदगी की घड़ी के कुछ पल को जीने की चाह रखना,
उन कुछ दोस्तो की शरारत को देखकर मन मे इच्छा का प्रकट होना की काश मैं भी उन हस्ते मुस्कुराते शरारतो की एक सहपाठी हो जाती, की काश मैं भी इस जीवन का लुफ्त उठा पाती,
पर अब उस छोटी शहर की छोटी सी लड़की की छोटी सी इच्छा शायद कही खतम होगायी थी और खुश रहने की उसको अब आदत सी होगई थी, उस भागते शहर मे उसने भागना न चुना था पर उस भागने की वह भी सहभागी होगयी थी।।
छोटे शहर की छोटी सी लड़की
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