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काज़ी प्रीत खुदा से की होती
हर पल महक जहान में होती।
प्रीत की महक कब छुप पायी
वह तो मैंने रोम रोम में बसाईं।
प्रीत इबादत है उस खुदा की
जब जब छुपायी बाहर आई।
शोख अदाओं में झलक आई
यह खामोशियों में नजर आई।
दिल की गहराइयों में पनपती
दिल मे जन्मती पलपल बढ़ती।
कहाँ रही वह प्रीत की झलक
जब जब दबाई लबो पर आई।
लब बंद थे आंखे छलक आयी
करूँ बंद आंखे मन मे समायी।
तुम प्रेम हो तुम प्रीत हो मेरी
धड़कनों से यह आवाज आई।
#सुरेश_गुप्ता
स्वरचित
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