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धिकधिक ये पौरुष नपुंसक हो रहा
पार्थ कठिन घड़ी में तुझे क्या हुआ
समक्ष युद्ध में न पितृ भ्रात न गुरु है
सामने खड़ा युद्ध में बस तेरा शत्रु है
तू धर्म मे भटके तू कर्ता नही रथी है
विश्वरथ का बस काल ही सारथी है
वे पहले से मरे हुए तू किसे मारता
आत्मा अमर है कोई न मार सकता
जब धर्महानि हो मैं अवतरित होता
हर युग में धर्म प्रस्थापित कर जाता
मित्र सखा सारथी तू जिसे समझता
वह है इस जगत का स्वामी नियंता
किंकर्तव्यविमूढ़ पार्थ हाथ जोड़ता
कृष्ण मैं निर्बल तेरी शरणागत हुआ
कठिन घड़ी में जो अवसादग्रस्त था
जगत नियंता पार्थ का सारथी हुआ
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