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मेरे गांव की बुढ़िया जिसके चर्चे आम थे
न समाज सेविका न सम्पन्न महिला थी
हर घर आंगन में भुआ बन वो आ जाती
वह बिन बोले ठौर ठौर प्यार लूटा जाती
एक रोटी नमक जीवन का गुजारा करती
शाम ढलते मन्दिर के अहाते में सो जाती
मुस्कराहट बिखेरती आलोचना से दूर रही
सब और खुशियाँ बांट वो सदा संपन्न रही
बिन थके बिन बोले सबका काम करती
वहां घरों में कुंए से पानी भर भर लाती
उस छांह तले मेरा बचपन भी गुजरा था
क्या समझता वो बिनलिखी किताब थी
मेरी पहली नौकरी में ख्याल एक आया
मैंने उसको एक मनीऑर्डर भिजवाया
जब फिर मिला उसको अजीब खुशी थी
बोल उठी क्यों मैने उसे पैसा भिजवाया
नब्बे बरस पार खेतो से अनाज बीन लाती
बोली क्या जरूरत उसे वह स्वसम्पन्न थी
बरस भर वो दो सौ में जीवन बसर करती
भौतिक जगत में गणित मैं समझ न पाया
मेरा दिया पैसा मेंरे नाम वह दान कर आई
कैसे असहाय गरीबी में वो अमीर रह पायी
क्या मैं उस निष्काम आत्मा से सीख पाता
अपने आप में वह जीवन का धर्मग्रंथ रही
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