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वक्त हुआ गुमनाम पत्ते खोलने का
जहां कभी अतीत दफन हुआ था
गृहस्थ की गाड़ी में भी जुते हुए थे
एक गाय और एक बैल ही तो था
एक परिश्रम एक शक्ति की मूरत
अगम की ओर अथक बढ़ते जाते
साठ पार थकान ने घेर ही लिया
शायद विधि का यह दस्तूर ही था
वो छोटे गांव की बस स्टैंड की बेंच
हलचल जाने पहचाने चेहरे फिरते
दिल की गहराईओं में कुछ चुभता
चेहरा गमगीन है नजर में राह नही
करते करते भी जिम्मेदारी छूट रही
बच्चों की पढ़ाई का बोझ बचा था
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