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लड़ते हुए इंसानों को इंसान से

देख ज़िगर अफ़गार होता हूं मैं

मिटा रहे मानवता की पहचान ये

हर रात यही सोच रोता हूं मैं।


क्या जात मेरी क्या औकात तेरी

इस तू मैं की बहस में है क्यों पड़ना

ये दिल तो घर है इश्वर का

इसमें नफ़रत है क्यों रखना

मिले मस्जिद तो सजदा कर लेना

दिखे मंदिर तो माथा टेक आना।


By Sikandar Alam Poetry

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