
धूप
आज फिर जो मेरी नींद खुल ही गई है
तो सोचा है कोई नई बात लिखूं...
तो आज मेरे कमरे की खिड़की से झाँकती धूप का मुझसे रिश्ता सुनो..
मेरे कमरे की खिड़की से जो हर रोज़ ये धूप झाँकती है,
मेरे ठिठुरे बदन में नई ऊर्जा जगाती है
जाने क्यूँ ये बंद आँखों पर यूं ही मचलती है?
जाने क्यों ये मुझसे लुका छिपी सी खेलती है?
और मैं..
मैं भी थक हार कर इनसे नजरें दो-चार कर ही लेती हूं
जब मेरे कमरे की खिड़की से ये धूप झाँकती है!!
वो सारे ख़्वाब जो मेरी सोती आँखों में सजते हैं
उन्हें सच करने के सोये अरमानों को जगाती हैं
वो सारे ख्याल जिनसे अक्सर दिल दुखता है मेरा
उन्हें दिल ही के किसी कोने में हर रोज दफन करती है
जब ये धूप मेरे कमरे की खिड़की से झाँकती है
बस इतना ही नहीं
वो भूली बिसरी सारी यादें
जो वक्त - बे -वक्त मेरी आँखें नम कर जाती हैं
उन्हें भी किसी घुप्प अंधेरे में ढकेल आती हैं
और वो ढेरों शिक़ायतें जो मैं अपने जीवन से रखने लगी हूँ
उन्हें भी मिटाने के नए मौके परोस्ती हैं
हर रोज़ जब मेरे कमरे की खिड़की से ये धूप झाँकती है!!
और हाँ
हर शाम इस खिड़की पे नई ख्वाहिशें रखती हूँ
पलकों पे आस लिए हर रोज़ थक कर सोती हूँ
के अगली सुबह जब नींद से जागूं
इन ख्वाहिशों में रंग कुछ और नए देखूं
जी हाँ कुछ ऐसा भी कमाल करती है
जब ये धूप मेरे कमरे की खिड़की से झाँकती है!!
-Shweta
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