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इस दुनिया में ऐसा प्रतीत होता है जैसे बाजार और प्रकृति के बीच कोई बैर है। क्योंकि ज्यादातर बाज़ार की स्थापना प्रकृति को उजाड़कर ही की जाती है। रेलगाड़ी भी ऐसा ही एक बाज़ार है, और इसकी स्थापना भी प्रकृति को उजाड़कर ही की गई है। हालांकि ये बाजार बाहरी बाजार से काफी अलग है। यहां आप खुद को प्रकृति के बीच में व्यापार करते पाते है। सुबह सुबह जब लेखक इन्हीं विचारोंं में खोया था कि विभिन्न प्रकार की आवाज़ें आनी शुरू हो गई। "गरम चा", "गरम चा", "गरम चा" की शोर ने रेलगाड़ी के चलने की आवाज पर विजय हासिल कर लिया था। बहुत सारे चाय वाले आए और गए पर लेखक का ध्यान हर बार एक ही चायवाले पर टीका था। उसकी शैली ही ऐसी थी। एक वजह यह भी थी कि वो नींबू वाली चाय बेच रहा था। सुबह सुबह वो चिल्लाता हुआ आया – "लिंबू वाला चाय पियेंगे, लिंबु वाला?" वो बार कह रहा था मेरी चाय सारे लड़के से अच्छी है, आप पहले पियो फिर पैसे दो। "चाय पियू ललका, मन करु हल्का" गाते हुए जाता और फिर १०–१५ मिनट के बाद घूम के आ जाता। "अरे भैये! ले मून वाला चाय है ले मून वाला" करते हुए वो लेखक के समीप वाले सीट पर वो चाय दे रहा था। बगल वाले भाई साहेब पूछ बैठे – भैया इतने पैसे में मैं दूध वाला चाय क्यों न खरीदूं भला? मुझे नहीं लेनी आपकी ये नींबू वाली चाय। चाय वाले ने बड़े विश्वास से कहा – साहेब! इस चाय से आपकी सारी गैस की परेशानी दूर हो जाएगी। ये दूध वाला चाय तो बहुत बेकार होता है। पूरा गैस कर देगा, और तो और (कान क
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