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मानव जीवन में रिश्तों का निर्माण प्राचीन काल में ही प्रारंभ हो गया था। रिश्तों का विकास ही समाज निर्माण का परिणाम है। यद्यपि यह मानव निर्मित विचारधारा अथवा भावना है ,फिरभी ये परमात्मा या ईश्वर का उद्देश्य ही प्रतीत होता है।
प्राचीन काल में जब मानव विकास के पथ पर यात्रा करना प्रारंभ किए तो सबसे पहला कार्य उनका समूह में रहना ही है।
मानव को समूह में रहने की आवश्यकता उनके भोजन को इक्कठा करने या बहुत बड़ी मात्रा में भोजन संग्रहण को लेकर हुई। क्योंकि भोजन कभी कभी ज्यादा मात्रा या बड़े जानवरों को मारने से प्राप्त हो जाती तो कभी कभी बहुत दिनों तक भोजन के बिना ही रहना पड़ता था। इसलिए भोजन को संग्रह करना प्रारंभ किए जिसके लिए एक से अधिक लोगों की आवश्यकता हुई। धीरे- धीरे कुछ लोग समूहन करना प्रारंभ किए जिसमे एक भावना उत्पन्न होने लगी और वो भिन्न लिंगों को लेकर हुई। जब मानव साथ रहने का प्रण किए तब उसने पुरुष और महिला दोनो शामिल थे।
साथ रहने के लिए कुछ नियम बनाए गए कि महिला घर का कार्य करेगी पुरुष शिकार करेंगे। एक महिला जो किसी पुरुष के साथ है तो अन्य पुरुष उससे दूर रहेंगे और पर्दा प्रथा या घर की आवश्यकता हुई।
यहीं से पुरुष - महिला में विभेद हुआ और इनके बढ़ने से विलग कुल या शारीरिक बनावट से मेल होना प्रारंभ हुआ। जो आगे चल कर गोत्र बना , अपने खून से अलग शादी करने और अपनी जाति में शादी करने का प्रचलन शुरू हुआ।
कालांतर में यहीं रिश्तों में बदलते गए और रिश्तों के बढ़ने तथा भिन्न कुल और जातियों के बढ़ने से समाज का निर्माण हुआ।
तब रिश्तें जो बंधे उसकी डोर केवल साथ रहने ,मजबूत रहने ,समाज निर्माण और भोजन प्राप्ति की थी। परंतु अब ये डोर काफी विकसित हो गई और इसमें स्वार्थ,लालच, घृणा,ईर्ष्या, अन्य के सुख से परेशानी जैसे रेशम को समाहित किया जा रहा , जिससे डोर काफी कमजोर होती जा रही और टूटने की प्रायिकता अधिक हो गई है।
रिश्तों
प्राचीन काल में जब मानव विकास के पथ पर यात्रा करना प्रारंभ किए तो सबसे पहला कार्य उनका समूह में रहना ही है।
मानव को समूह में रहने की आवश्यकता उनके भोजन को इक्कठा करने या बहुत बड़ी मात्रा में भोजन संग्रहण को लेकर हुई। क्योंकि भोजन कभी कभी ज्यादा मात्रा या बड़े जानवरों को मारने से प्राप्त हो जाती तो कभी कभी बहुत दिनों तक भोजन के बिना ही रहना पड़ता था। इसलिए भोजन को संग्रह करना प्रारंभ किए जिसके लिए एक से अधिक लोगों की आवश्यकता हुई। धीरे- धीरे कुछ लोग समूहन करना प्रारंभ किए जिसमे एक भावना उत्पन्न होने लगी और वो भिन्न लिंगों को लेकर हुई। जब मानव साथ रहने का प्रण किए तब उसने पुरुष और महिला दोनो शामिल थे।
साथ रहने के लिए कुछ नियम बनाए गए कि महिला घर का कार्य करेगी पुरुष शिकार करेंगे। एक महिला जो किसी पुरुष के साथ है तो अन्य पुरुष उससे दूर रहेंगे और पर्दा प्रथा या घर की आवश्यकता हुई।
यहीं से पुरुष - महिला में विभेद हुआ और इनके बढ़ने से विलग कुल या शारीरिक बनावट से मेल होना प्रारंभ हुआ। जो आगे चल कर गोत्र बना , अपने खून से अलग शादी करने और अपनी जाति में शादी करने का प्रचलन शुरू हुआ।
कालांतर में यहीं रिश्तों में बदलते गए और रिश्तों के बढ़ने तथा भिन्न कुल और जातियों के बढ़ने से समाज का निर्माण हुआ।
तब रिश्तें जो बंधे उसकी डोर केवल साथ रहने ,मजबूत रहने ,समाज निर्माण और भोजन प्राप्ति की थी। परंतु अब ये डोर काफी विकसित हो गई और इसमें स्वार्थ,लालच, घृणा,ईर्ष्या, अन्य के सुख से परेशानी जैसे रेशम को समाहित किया जा रहा , जिससे डोर काफी कमजोर होती जा रही और टूटने की प्रायिकता अधिक हो गई है।
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