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अक़्सर ख़्याल में तुम रूबरू होते हो मेरे,
एक लकड़ी की बैंच पे।
हम बैठे हैं सामने एक दूसरे के,और बातें वही ख़त वाली,जो हमेशा सिर्फ लिखी गई ...कही कभी नहीं..
लकड़ी की बैंच पे,लिए हाथों में चाय के प्याले।
मेरी कुछ शिकायतें, और वही तेरी सफाई,
अपनी उल्फ़त कुछ ऐसे थी हमने जताई...
आज नहीं समझूँगी मैं,तेरे इक़रार भरे आंखों के इशारे..आज कहना होगा तुम्हे ज़बान
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