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कमज़ोर सा जिस्म था 

शायद एक गोली से भी खत्म हो सकता था

हो सकता है गोली भी ना चलानी पड़ती

कुछ दिन में अपने आप ही मर जाता

जिस्म ही तो था

तीन गोलियां बर्बाद कर दी

और वो मरा भी नहीं

जिसका मरना मकसूद था

वो तो खुशबू सा हवा में बिखर गया

हज़ारों गोलियां आज भी मारी जाती है

हज़ारों बार जलाया जाता है

फांसी पर भी बेहिसाब बार लटकाया जाता है

सलीबों पर ठोका जाता है

कांच पीस कर पिलाया जाता है

चौराहों पर

सभाओं में

संसद में भी

किताबो और रिसालों में

पर वो मरता नहीं है

हर बार

किसी कस्बे के छोटे स्कूल में

बच्चो के फैंसी ड्रेस में

कोई कमज़ोर सा लड़का

हाथ में लकड़ी और कमर पर धोती बांध

हज़ारों जेहनों में गांधी खड़े कर देता है 


सत्यप्रकाश

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