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मध्य मार्ग के चरम छोर

sarthakgupta2k3sarthakgupta2k3 November 20, 2022
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इतनी दौड़-भाग, इतनी कश्मकश, अँधा कर देने वाला उजाला - दुनिया का विरोधाभास बहुत निर्मम है। अकेले बैठा व्यक्ति बिलकुल अकेला ही होता है, यानी उसके पास कोई नहीं होता, अकेलेपन का भाव भी नहीं। ये कैसा द्वंद्व है कि व्यक्ति अकेला प्रतीत करता है तो भीड़ में ! मन-से-व्यक्ति, व्यक्ति-से-समाज, न जाने क्यों चाहते न चाहते नियति व्यक्ति को इसी राह पर पटकती है और इसके प्रतिकूल समाज से मन तक की यात्रा स्वार्थसिद्धि की लड़ाई बन जाती है। सिर धुनों, सोचो-विचारो तो बीच का रास्ता हर कोई ढूंढ लेता है पर बीच के रास्ते स्वयं में इतने विराट होते हैं की व्यक्ति फिर उन बीच के रास्तों का भी मध्य ढूंढने में लगा रहता है और अंततः परेशान होता है।  


हर परिस्थिति में समरसता का रसायन प्रेम कहा गया है। पर क्या समाज में भी ये कारगर है?


हर मन अपने में एक समाज की छाप होता है और समाज एक प्रबल मन के आदर्शों की छाया। इससे कहा जा सकता है की समाज में अपनी पसंद का व्यक्ति ढूंढना अपने पसंद का समाज ढूंढने जैसा है। अपनी पसंद का समाज ढूंढना उतना ही मुमकिन लगता है जितना धरती के कीचड़ को उछाल आसमान को मैला करना, परन्तु एक बार को ऐसा मान लिया जाए की व्यक्ति अपने मनपसंद समाज को पा जाता है। व्यक्ति अब खुश है, कोई दुःख नहीं, वो जो चाहता था हो गया है। यहां कोई उसे परेशान करने वाला नहीं, स्वछंदता की लहरों में डूबता-उठता वो व्यक्ति अब कोई इच्छा नहीं रखता। इच्छाओं का खात्मा ! अर्थात दुःख का प्रबल भाव अथवा चिर आनंद, हम जान रहें हैं की व्यक्ति खुश है तो ये अनुभूति चिर आनंद वाली ही हो सकती है और जो ये चिर आनंद है तो इससे तो ये प्रमाणित होता है की ये मनपसंद समाज नाम का नगर अध्यात्म के राज्य में बसा है। यदि व्यक्ति अध्यात्म की ऐसी उन्नत चोटी चढ़ गया तो समाज रहा ही कहाँ !? तब तो ना समाज रहा, न नगर, ना देश केवल वो व्यक्ति रहा या परम् सत्ता। व्यक्ति इन सब से स्वतंत्र हो गया तो समाज में गुज़र-बसर के

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