लोग जा रहे हैं/जाने वालों के नाम एक कविता
लोग जा रहे हैं
जैसे चली जा रही है मुट्ठी से रेत
हवा की दिशा में बिखरती,
लोग जा रहे हैं
जैसे मृत्यु के बाद जा रही है याद
कि अब कभी टकराएंगे
शहरों की भीड़ में चलते हुए,
नज़रों से छूते हुए,
गुजरने की गति से तेज,
लोग जा रहे हैं
जैसे चली जाती है धूप
साँझ के आग़ोश में सिमट कर
छोड़ती हुई चुटकी भर रोशनी
छुटपुट सितारों के नाम,
लोग जा रहे हैं
कि जैसे सीज़नल पौधों सेविदा ले रहे हैं फूल,
जड़ें माटी करते हुए मानो कह रहे हैं
कुवँर नारायण की कविता में -
"अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा"
लोग जा रहे हैं
जैसे चली जा रही है भीड़किसी यात्रा की, कामगीरों की
वैष्णव भक्तों की, जत्थों की
फुटपाथों पर सोए मँगइयों की
भेड़ों के झुण्डों की, रेगिस्तानी ऊँटों की
हिमालय चढ़ते वीरों की
बंजारों की, यारों की, सैयारों की
वोटरों की, चीटरों की
राजनीतिक परिवेश में फैले सभी लीडरों की
गुस्से में तमतमाए मनरंजित अधीरों की
लोग जा रहे हैं,
लोग जा रहे हैं
जैसे जाते हैं खिसियाए फूफा
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