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अब स्थिर हो चला है मेघों का नाद
थम चुका है बूँदों का नृत्य
आज सामूहिक स्नान किया है
जंगल के साथ पहाड़ों ने भी
जैसे रोम- रोम भीग गया हो झूमते पेड़ों का
तभी उनका रंग
कुछ और भी गाढ़ा व पक्का हो आया है
पत्तियों पर सुस्ताते बूँदों को
छेड़ता पवन
अपने मंद वेग से गति दे रहा है
कभी प्यास से अधमरे हो चुके
तालाब और खेत
जैसे पेट भर मदिरा पी कर ऊँघ रहे हैं
अपने ठिकानों को लौटते जीव
मेंढकों और पक्षियों का सामूहिक स्वर
कुछ ऐसा संकेत करती है
मानो तृप्त हो गयी है अलसायी धरती
की जैसे गर्भधारण कर रही हो
सृष्टि को गतिमान रखने के लिये
इस एकांत
इस नीरवता को समेटे
कितना प्राकृतिक है प्रकृति का यह रूप
कितनी अद्भुत प्रक्रिया है
बरसात का होना
©️संतोष कुमार
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