
घर खेत सारे उजाड़ हो रखे हैं,
सपने भविष्य के दोफाड़ हो रखे हैं,
दौर पलायन का रुकता ही नहीं है,
कितने तन्हा आजकल पहाड़ हो रखे हैं।
हवा आधुनिकता की सर लग गयी है,
बाहर जाने की जिद सब पर लग गयी है,
सूने पड़े हैं सब चौक चौबारे,
देवभूमि को किसी की नजर लग गयी है,
जर्जर दहलीज़ों के किवाड़ हो रखे हैं,
कितने तन्हा आजकल पहाड़ हो रखे हैं।
अब गांव से शहर तक सड़क जा रही है,
गाड़ी मगर खाली ही वापिस आ रही है,
इस बार भी बेटा बहु घर नहीं आये,
मां की जुबान कहते हुए लड़खड़ा रही है,
इन्तजार में नैना आषाढ़ हो रखे हैं,
कितने तन्हा आजकल पहाड़ हो रखे हैं।
लोग यहाँ के कर्मठ हैं बहुत कुछ कर सकते हैं,
मगर हवा और पानी से तो पेट नहीं भर सकते हैं,
रोजगार और उद्योग अगर सरकार यहीं पर खोल दे,
तो पलायन की पीड़ा से यूँ ही उबर सकते हैं,
धरोहर पे संकट प्रगाढ़ हो रखे हैं,
कितने तन्हा आजकल पहाड़ हो रखे हैं।
-संजू
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