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ग़म-ए-ज़िंदगी भुला बैठे हैं अब तो,
न जाम की तलब है, न साक़ी की।
बेचैन फिर क्यूँ हुए जाता है, दिल ये नादाँ,
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ग़म-ए-ज़िंदगी भुला बैठे हैं अब तो,
न जाम की तलब है, न साक़ी की।
बेचैन फिर क्यूँ हुए जाता है, दिल ये नादाँ,
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