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कुपित कृष्ण

samarpan.swamisamarpan.swami February 27, 2023
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साक्षी

कुरुक्षेत्र की पावन भूमि

वाणझड़ी से सिंचित थी,

कोख धरे वह रक्तसरोवर

मृत देहों को जनती थी ।

युद्ध नहीं यह हार-जीत का

नहीं समर सिंहासन का,

शूर-वीर की, सत्य धर्म की

कठिन परीक्षा, टक्कर थी ।



मृत्यु-प्रलय पर थिरक रहा

नृत्य भीष्म के तांडव का,

ताल तोड़ने ध्वंसनाद का

बना काल सा अर्जुन था।

छाया-काया, वज्र-आग सम

पौत्र-पितामह सम्मुख थे

महाकाल बन कवलित करने

इक दूजे का मुख टोहे ।

भावुकता के बादल अब

विषम पाश बन अर्जुन का,

तेज हरण कर इन्द्रपुत्र का

डाला यादों के कारा में ।

 

अर्जुन

बचपन में इनकी गोदी चढ़

जब कहता था ’मेरे ताता!’

हँसकर कहते, ’हूँ मैं बेटा,

तात तुम्हारे तात का ।’

जिनकी छाती रोये-सोये

श्वेत श्मश्रु धर खेले थे;

कैसे करुँ वह छत्र छिन्न

जो पिता, पितामह, त्राता थे |

रे धर्म समर! कह जीवन में

कठिन परीक्षा लेते क्यों?

निज से निज को टकराकर

चिह्नहीन बनवाते क्यों|

है बंधु-पराया कोई नहीं

क्यों बोलो, कहते ऐसा तुम?

निश्चित ही इस जग में तेरा

कोई अपना नहीं कहने का!

 

साक्षी

वाण मचलते लिए हाथ

लक्ष्य भेदते रहे पार्थ ।

पर, भीष्म कहाँ, औ तीर कहाँ?

वह वेग कहाँ? वह तेज कहाँ?

 

वीर पितामह धीर अपि

देख पौत्र को कंपित थे,

पर उनके वे प्रलय-वाण

हड़कम्प प्रचंड मचाए थे । 

देख पार्थ को विचलित यूँ

कृष्ण दिए सघन ललकार ।

काठ बने अर्जुन कानों ने

सुनी नहीं, पर, एक गुहार ।

देख सैन्य का महानाश अब

कुपित कृष्ण का क्रोध भयंकर

फूटा यूँ वाणी बनकर ।


कृष्ण

मोहग्रस्त क्यों तेज तुम्हारा?

तीक्ष्ण अस्त्र क्यों कुंठित आज?

धरती धकधक करने वाले

कदम हुए क्यों कंपित आज?

समराँगण नहीं, होमकुण्ड यह

हविषा पावन माँग रहा;

यज्ञपात्र में तूने क्यों, पर

धूल, भस्मकण भर रखा?

गंगपुत्र का करते अंत

मन में क्यों यह शोक-ताप?

कर विदा बल, वीर्य, तेज सब

गले धरे क्यों हो अवसाद?

काठसंग से जलता कीट,

अन्नसंग से पिसता वह ,

साथ अधर्मी का देने पर

शिष्टों का होता निश्चित वध ।

कवच अभेदा बन अबतक

दिए भीष्म दुष्टों का साथ;

आज युद्ध के दावानल में

बने रहें क्यों वे अपवाद?

मुर्ख धनंजय, मुड़कर देख ।

देख तुझे ही जीत दिलाने

व्यर्थ ही कैसे तेरी सेना

कटी घास का हुई ढेर ।

आती देख विपत्ति को

दौड़ लगाते लँगड़े भी

महाकाल के खड़े सामने

हो क्यों भावुक, मूक, बधिर?

आज त्यागकर आश्रित रक्षा,

और छोड़ तुम लाज-शरम;

धर्मवचन धर धरती पर 

कितने नीच बने हो तुम ।

भूले कृष्णा का वस्त्रहरण,

भूले दुष्टों का क्रूरचलन,

भूल गये क्या वे दिन जब

भटके वन-वन भाईसंग?

गीता का उपदेश हो भूले,

धर्म, कर्म, उद्देश्य हो भूले,

आज भूलकर अपने को अब

रहे नहीं तुम वीर, धुरंधर ।

बृहन्नला बन आज यहाँ;

बने नपुंसक भीरु, कायर;

अस्त्र हैं तेरे बिलख रहे, जा

चूड़ी पहन ले घर जाकर ।

हिजड़ों का यह नाच नहीं,

युद्ध है वीर, लड़ाकों का

पग धर घुँघरु, लिपटा साड़ी

जा, महलों में नाच सिखा ।

ध्यान लगा सुन मेरी बात :

जग में तुम बस निमित्तमात्र,

कर पालन कर्त्तव्य-कर्म का

कृपा नहीं तुम करते जग पर ।

व्यर्थ एक शर होने पर

तरकश ना होता रिक्त कभी,

देखो कैसे बिन तेरे ही

कौरव बनते भस्मित वीर ।

एक अकेला काफी हूँ मैं

करने जग में दुष्ट दमन,

चक्र नहीं, देखो चाबुक से

करता कैसे भीष्म-शमन ।

बचें पितामह आया मैं ।

देखें कितनी शेष बची अब

साँस तुम्हारी बाहों में?

 

साक्षी

निष्प्राभ करने भीष्मतेज का

धर कूदे चाबुक मुरलीधर

भय से जग निस्तब्ध हुआ,

डगमग डोली धरती थर-थर ।

 

भीष्म

प्रभो! तुम्हारा स्वागत, स्वागत!

शस्त्रहीन मैं, हे करुणाकर,

आज आपके हाथों मर मैं

होनेवाला धन्य, अमर ।

उठवा निज पर शस्त्र आपसे

जीवन मेरा धन्य हुआ;

कर त्रासित मैं आज आपको

मॄषा-वचन, हाँ बना दिया ।

 

कृष्ण

गति धर्म की सूक्ष्म, गहन

होता वह सामान्य, परम

शिष्टों की रक्षा करना ही

जग में मेरा परम धर्म ।

 

कह ले झूठा जग मुझको

पाप नहीं, पर होगा मुझको:

परम धर्म को साधित करने

क्षुद्रवचन मैं तोड़ रहा । 

बाँध बाँधता सिन्धुवेग को

वचन बाँधता भाववेग धर,

टूट अगर ये जाएँ कोई

होता जग में प्रलय भयंकर ।

 

बचें पितामह, आया मैं ।

 

***

 





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