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इठलाती मैं सोनपरी।

खुशियाँ छितराती

थी जग की प्यारी

अपने सोनमहल में ।

 

ठिठक थमा था चक्र काल का

या धावित था चक्राकार

हो सम्मोहित मन से मेरे

आकर वह अँगना मोरे ।

 

कहो खेल यह कर्मों का

या, मूर्ख मनों की नादानी

हुआ आक्रमित

वह महल सुहाना सपनों का ।

 

फुफकार भरी

फूत्कार भरी

झँझा फूटी वेगवती

मानो एक फणी

पाने अपनी मुकुटमणि

चोट चोट पर करता चोट

क्रोधित, कुंठित

फण सहस्र धर

सम्मुख हर बाधा पर ।



या अनजाने

शेषनाग ने करवट ली।

 

अस्थिर आधार

कम्पित दीवार

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