
इठलाती मैं सोनपरी।
खुशियाँ छितराती
थी जग की प्यारी
अपने सोनमहल में ।
ठिठक थमा था चक्र काल का
या धावित था चक्राकार
हो सम्मोहित मन से मेरे
आकर वह अँगना मोरे ।
कहो खेल यह कर्मों का
या, मूर्ख मनों की नादानी
हुआ आक्रमित
वह महल सुहाना सपनों का ।
फुफकार भरी
फूत्कार भरी
झँझा फूटी वेगवती
मानो एक फणी
पाने अपनी मुकुटमणि
चोट चोट पर करता चोट
क्रोधित, कुंठित
फण सहस्र धर
सम्मुख हर बाधा पर ।
या अनजाने
शेषनाग ने करवट ली।
अस्थिर आधार
कम्पित दीवार
टूट गिरी छत
सर ऊपर।
गहन तमस की आगोशी
चेतनता की खमोशी
पूरब पश्चिम एक बना
शेष रहा था बस अब
साँसों से बहती बदहोशी ।
फँसा काल का चक्र पंक अब
या धीमा पर धीमा हावी
पीड़ित विगलितदेख दृश्य वह दुखदायी ।
कंगाली में आटा गीला,
फटी सिलायी मेघों की, हा!
हो अचम्भित
‘मैं’पन भी वीरान हुआ ।
प्रियतम मेरे!
ना जानूँ मैं क्यों तूने
ज्योत आस की प्रेषण की
अप्रत्याशित
मुझ तक मेरे मलबे बीच ।
आज नहीं मैं सोनपरी
रहा नहीं वह रंगमहल;
पर बालू की भीत नहीं अब
छपरी भी ना कच्ची सी।
प्रियतम मेरे, मेरे प्यारे
तुम्ही भीत अब,
छत भी तुम ही ।
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