Share0 Bookmarks 49422 Reads2 Likes
इठलाती मैं सोनपरी।
खुशियाँ छितराती
थी जग की प्यारी
अपने सोनमहल में ।
ठिठक थमा था चक्र काल का
या धावित था चक्राकार
हो सम्मोहित मन से मेरे
आकर वह अँगना मोरे ।
कहो खेल यह कर्मों का
या, मूर्ख मनों की नादानी
हुआ आक्रमित
वह महल सुहाना सपनों का ।
फुफकार भरी
फूत्कार भरी
झँझा फूटी वेगवती
मानो एक फणी
पाने अपनी मुकुटमणि
चोट चोट पर करता चोट
क्रोधित, कुंठित
फण सहस्र धर
सम्मुख हर बाधा पर ।
या अनजाने
शेषनाग ने करवट ली।
अस्थिर आधार
कम्पित दीवार
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments