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कभी कभी बहुत मन करता हैं उस डायरी को जलाने का,
जिसमें मैंने लिखें हैं, वो सारे किस्से,कहानी,
वो लम्हें, जो कभी तुम्हारे साथ बीते थे।
कई बार कोशिश भी की हैं उसे जलाने की,
मग़र हिम्मत नही हुई।
हम्म,ऐसा ही होता आया हैं,
और आगे भी होता रहेगा,
तुम अपनी प्यारी चीज़ को ख़ुद से अलग नही कर पाओगें,
भले वो तुमसे कितना दूर क्यों न हो।
दूर होने और अलग होने में फ़र्क़ होता हैं।
मैंने जितनी दफ़ा उसे जलाने की कोशिश की,
उतनी ही दफ़ा सोचा कि एक बस,बस एक आख़िरी बार तो
इसे पूरा पढ़ लूँ,
वो लम्हे एक बार फ़िर से जी लूँ,
नही हो पाया मुझसे,और मेरी हिम्मत फ़िर हार गई।
कुछ ही पन्ने पढ़ते पढ़ते,मेरी आँखें नम हो जाती हैं,
औऱ मैं उस डायरी को आज भी पूरा पढ़ ही नही पाती।
कैसे जला दूँ मैं उसे,
जिसमे दफ़्न हूँ मैं, तुम,हम औऱ हमारी यादें,
ले देके एक यही तो हैं मेरे पास।
जब जब मुझे बहुत गुस्सा आता हैं तो बस मेरा जी चाहता हैं,
कि नोंच लूँ इसका एक एक पन्ना,मग़र नही होता मुझसे।
पता नही कभी हो भी पायेगा या नही।
वाक़ई बेहद दर्दनाक होता हैं अपने हाथों से लिखा हुआ वो सब जलाना, जिस पर आपने अपनी ज़िंदगी ख़र्च की हो,
और ऐसी ख़र्च कि जिसकी भरपाई करते करतें पूरी ज़िंदगी लग जाये,मग़र तुम उसका जमा भी न हासिल कर सको,
शायद यही होती हैं ज़िन्दगी,
जिसे हम जीना छोड़कर,बस ख़र्च ही कर पाते हैं।
©- Salma Malik
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