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एक कविता 

क्या सच में सब अच्छा होता,
गर सब अच्छा होता?

होती सारे ज़माने में सिर्फ़ खुशियाँ,
गम का न कोई नाम-ओ-निशाँ होता।

सब होते गर सिर्फ़ बुलन्दियों पर,
गिरना क्या है, क्या किसी को पता होता?

न कोई बीमारी,न दुःख,न दर्द,न तक़लीफ़,
कुछ भी न होती गर ज़माने में,
तो क्या किसी को ख़ुदा का पता होता?

गर होती ही न ये ज़मीं,
तो फिर आसमाँ किसे पता होता?

क्या सच में अच्छा होता,
गर सब अच्छा होता?

तुम्हें सुख़ की क़द्र ही न होती

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