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सोशल मीडिया के दौर में झूठ को सच
सच को झूठ बना दिया जाता है,
प्रचार के इस माध्यम को टी आर पी
का साधन मान लिया जाता है,
गुमराह करने वाले तथ्यों को जोर शोर
से जनता के बीच दिखाया जाता है
हकीकत से दूर एक भ्रमजाल बुना
जाता है,
अवाम को रोज नए नए विवादों में
उलझाया जाता है ।
मीडिया चैनलों पर क्या कोई नैतिक
जिम्मेदारी या संवैधानिक मानक का
कोई दबाव नहीं या सरकार का सहयोग है,
सच आज हम सब झूठ के बाजार के
खरीददार हो गए,
हर अफवाह और झूठ के किरदार बन गए ।
पत्रकारिता एक सशक्त और संविधान की
व्यवस्थाओं का अंग है,
जिस पर अवाम को सच दिखाने बताने
की जिम्मेदारी है,
अफसोस इस बाजारी मानसिकता की
गिरफ्त में मीडिया के प्रति अवाम की
घटती विश्वसनीयता भविष्य के लिए घातक
और निष्क्रिय मानक बन कर ना रह जाए ।।
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