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मैं बस एक तरुवर छाया-सी,
नियति में मेरे ही छाँव नहीं,
अर्पण करती हूँ शीतलता,
मौन हूँ मैं अनभिज्ञ नहीं....
वैसे मेरे नाम बहुत है,
पर मेरा कोई धाम नहीं,
जब उत्पत्ति हुई मेरी तब,
मिथ्या हास क्यों करें सभी....
मेरा जब प्रारंभ ही ऐसा,
मंथन कर लूं अंत हो जैसा,
प्रेम और सम्मान जो लौटा दो
तो फिर अपभ्रंश हो कैसा.....
ना धाम कोई, ना नाम कोई,
ना स्नेह भाव, सम्मान कोई,
अनुकूल नहीं गर हम तो कहते,
जा निज घर तेरा काम नहीं....
नारी होना क्यों दुर्लभ
नियति में मेरे ही छाँव नहीं,
अर्पण करती हूँ शीतलता,
मौन हूँ मैं अनभिज्ञ नहीं....
वैसे मेरे नाम बहुत है,
पर मेरा कोई धाम नहीं,
जब उत्पत्ति हुई मेरी तब,
मिथ्या हास क्यों करें सभी....
मेरा जब प्रारंभ ही ऐसा,
मंथन कर लूं अंत हो जैसा,
प्रेम और सम्मान जो लौटा दो
तो फिर अपभ्रंश हो कैसा.....
ना धाम कोई, ना नाम कोई,
ना स्नेह भाव, सम्मान कोई,
अनुकूल नहीं गर हम तो कहते,
जा निज घर तेरा काम नहीं....
नारी होना क्यों दुर्लभ
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