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कुछ खुशनुमा सी उम्मीदें
कभी कभी यूं
भी चली आती हैं
जैसे बुझते हुए दीपक की
लौ जगमगा उठती है
कुछ ज़िंदादिल सी ख्वाहिशें
कभी कभी यूं
भी मचल उठती हैं
जैसे बरखा की फुहार पाकर
बंजर ज़मीन महक उठती है
कुछ बेपरवाह सी आदतें
कभी कभी यूं
भी चहक उठती हैं
जैसे सूने पड़े चेहरे पर
मुस्कुराहटें चमक उठती हैं
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